ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें। लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।। गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।। उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे, सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।। वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल। तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्...
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें