गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
'त्रिवेणी' दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०
ले लो दो आने के चार लड्डू राज गिरे के यार यह हैं धरती जैसे गोल ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल इनके मीठे स्वादों में ही बन आता है इनका मोल दामों का मत करो विचार ले लो दो आने के चार। लोगे खूब मज़ा लायेंगे ना लोगे तो ललचायेंगे मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक हँसी खुशी से सब खायेंगे इनमें बाबू जी का प्यार ले लो दो आने के चार। कुछ देरी से आया हूँ मैं माल बना कर लाया हूँ मैं मौसी की नज़रें इन पर हैं फूफा पूछ रहे क्या दर है जल्द खरीदो लुटा बजार ले लो दो आने के चार।
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