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दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें। लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।। गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।। उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे, सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।। वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल। तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्...

लड्डू ले लो / माखनलाल चतुर्वेदी

ले लो दो आने के चार लड्डू राज गिरे के यार यह हैं धरती जैसे गोल ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल इनके मीठे स्वादों में ही बन आता है इनका मोल दामों का मत करो विचार ले लो दो आने के चार। लोगे खूब मज़ा लायेंगे ना लोगे तो ललचायेंगे मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक हँसी खुशी से सब खायेंगे इनमें बाबू जी का प्यार ले लो दो आने के चार। कुछ देरी से आया हूँ मैं माल बना कर लाया हूँ मैं मौसी की नज़रें इन पर हैं फूफा पूछ रहे क्या दर है जल्द खरीदो लुटा बजार ले लो दो आने के चार।

एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो, धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो, 'त्रिवेणी' दो नदी हैं! एक तुम हो, हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा, प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो। रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें। लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।। गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।। उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे, सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।। वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल। तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्...

लड्डू ले लो / माखनलाल चतुर्वेदी

ले लो दो आने के चार लड्डू राज गिरे के यार यह हैं धरती जैसे गोल ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल इनके मीठे स्वादों में ही बन आता है इनका मोल दामों का मत करो विचार ले लो दो आने के चार। लोगे खूब मज़ा लायेंगे ना लोगे तो ललचायेंगे मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक हँसी खुशी से सब खायेंगे इनमें बाबू जी का प्यार ले लो दो आने के चार। कुछ देरी से आया हूँ मैं माल बना कर लाया हूँ मैं मौसी की नज़रें इन पर हैं फूफा पूछ रहे क्या दर है जल्द खरीदो लुटा बजार ले लो दो आने के चार।

एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो, धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो, 'त्रिवेणी' दो नदी हैं! एक तुम हो, हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा, प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो। रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी

चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ। धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें, दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर- बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे। पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल। छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल? ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी? फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना, पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।

तुम्हारा चित्र / माखनलाल चतुर्वेदी

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर हरे-हरे घन श्यामल वन पर द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर चुम्बन आज पवित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। तुम आए, बोले, तुम खेले दिवस-रात्रि बांहों पर झेले साँसों में तूफान सकेले जो ऊगा वह मित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। ये टिमटिम-पंथी ये तारे पहरन मोती जड़े तुम्हारे विस्तृत! तुम जीते हम हारे! चाँद साथ सौमित्र बन गया। मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

घर मेरा है? / माखनलाल चतुर्वेदी

क्या कहा कि यह घर मेरा है? जिसके रवि उगें जेलों में, संध्या होवे वीरानों मे, उसके कानों में क्यों कहने आते हो? यह घर मेरा है? है नील चंदोवा तना कि झूमर झालर उसमें चमक रहे, क्यों घर की याद दिलाते हो, तब सारा रैन-बसेरा है? जब चाँद मुझे नहलाता है, सूरज रोशनी पिन्हाता है, क्यों दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा है, यह मेरा है? ये आए बादल घूम उठे, ये हवा के झोंके झूम उठे, बिजली की चमचम पर चढ़कर गीले मोती भू चूम उठे; फिर सनसनाट का ठाठ बना, आ गई हवा, कजली गाने, आ गई रात, सौगात लिए, ये गुलसबो मासूम उठे। इतने में कोयल बोल उठी, अपनी तो दुनिया डोल उठी, यह अंधकार का तरल प्यार सिसकें बन आयीं जब मलार; मत घर की याद दिलाओ तुम अपना तो काला डेरा है। कलरव, बरसात, हवा ठंडी, मीठे दाने, खारे मोती, सब कुछ ले, लौटाया न कभी, घरवाला महज़ लुटेरा है। हो मुकुट हिमालय पहनाता सागर जिसके पद धुलवाता, यह बंधा बेड़ियों में मंदिर, मस्जिद, गुस्र्द्वारा मेरा है। क्या कहा कि यह घर मेरा है?

यौवन का पागलपन / माखनलाल चतुर्वेदी

हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। सपना है, जादू है, छल है ऐसा पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा, मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा। यह गुदगुदी, यही बीमारी, मन हुलसावे, छीजे काया। हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर, वह आया सपने में, मन में, उठकर, वह आया साँसों में से रुक-रुककर। हो न पुरानी, नई उठे फिर कैसी कठिन मोहनी माया! हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

बदरिया थम-थमकर झर री ! / माखनलाल चतुर्वेदी

बदरिया थम-थनकर झर री ! सागर पर मत भरे अभागन गागर को भर री ! बदरिया थम-थमकर झर री ! एक-एक, दो-दो बूँदों में बंधा सिन्धु का मेला, सहस-सहस बन विहंस उठा है यह बूँदों का रेला। तू खोने से नहीं बावरी, पाने से डर री ! बदरिया थम-थमकर झर री! जग आये घनश्याम देख तो, देख गगन पर आगी, तूने बूंद, नींद खितिहर ने साथ-साथ ही त्यागी। रही कजलियों की कोमलता झंझा को बर री ! बदरिया थम-थमकर झर री !

तुम मिले / माखनलाल चतुर्वेदी

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई! भूलती-सी जवानी नई हो उठी, भूलती-सी कहानी नई हो उठी, जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी, बालपन की रवानी नई हो उठी। किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई। तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई। घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली, नयन ने नयन रूप देखा, मिली- पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली; बीतते-से दिवस लौटकर आ गए बालपन ले जवानी संभल आ गई। तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई। तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई, चुंबनों, सावंली-सी घटा छा गई, एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण पर गगन से उतर चंचला आ गई। प्राण का दान दे, दान में प्राण ले अर्चना की अमर चाँदनी छा गई। तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

मुझे रोने दो / माखनलाल चतुर्वेदी

भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो। यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो। रहो प्रेम से तुम्हीं मौज से मजुं महल में, मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो। कुछ भी मेरा हृदय न तुमसे कह पावेगा किन्तु फटेगा, फटे बिना क्या रह पावेगा, सिसक-सिसक सानंद आज होगी श्री-पूजा, बहे कुटिल यह सौख्य, दु:ख क्यों बह पावेगा? वारूँ सौ-सौ श्वास एक प्यारी उसांस पर, हारूँ अपने प्राण, दैव, तेरे विलास पर चलो, सखे, तुम चलो, तुम्हारा कार्य चलाओ, लगे दुखों की झड़ी आज अपने निराश पर! हरि खोया है? नहीं, हृदय का धन खोया है, और, न जाने वहीं दुरात्मा मन खोया है। किन्तु आज तक नहीं, हाय, इस तन को खोया, अरे बचा क्या शेष, पूर्ण जीवन खोया है! पूजा के ये पुष्प गिरे जाते हैं नीचे, वह आँसू का स्रोत आज किसके पद सींचे, दिखलाती, क्षणमात्र न आती, प्यारी किस भांति उसे भूतल पर खीचें।

जवानी / माखनलाल चतुर्वेदी

प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी ! कौन कहता है कि तू विधवा हुई, खो आज पानी?   चल रहीं घड़ियाँ, चले नभ के सितारे, चल रहीं नदियाँ, चले हिम-खंड प्यारे; चल रही है साँस, फिर तू ठहर जाये? दो सदी पीछे कि तेरी लहर जाये? पहन ले नर-मुंड-माला, उठ, स्वमुंड सुमेस्र् कर ले; भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी! द्वार बलि का खोल चल, भूडोल कर दें, एक हिम-गिरि एक सिर का मोल कर दें मसल कर, अपने इरादों-सी, उठा कर, दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें? रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी! जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी? वह कली के गर्भ से, फल- रूप में, अरमान आया! देख तो मीठा इरादा, किस तरह, सिर तान आया! डालियों ने भूमि स्र्ख लटका दिये फल, देख आली ! मस्तकों को दे रही संकेत कैसे, वृक्ष-डाली ! फल दिये? या सिर दिये?त तस्र् की कहानी- गूँथकर युग में, बताती चल जवानी ! श्वान के सिर हो- चरण तो चाटता है! भोंक ले-क्या सिंह को वह डाँटता है? रोटियाँ खायीं कि साहस खा चुका है, प्राणि हो, पर प्राण से वह जा चुका है। तुम न खोलो ग्...

बलि-पन्थी से / माखनलाल चतुर्वेदी

मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल, कह फूल-फूल, सह फूल-फूल। हरि को ही-तल में बन्द किये, केहरि से कह नख हूल-हूल। कागों का सुन कर्त्तव्य-राग, कोकिल-काकलि को भूल-भूल। सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे, तो चल रौरव के कूल-कूल। भूखंड बिछा, आकाश ओढ़, नयनोदक ले, मोदक प्रहार, ब्रह्यांड हथेली पर उछाल, अपने जीवन-धन को निहार।

वरदान या अभिशाप? / माखनलाल चतुर्वेदी

कौन पथ भूले, कि आये ! स्नेह मुझसे दूर रहकर कौनसे वरदान पाये? यह किरन-वेला मिलन-वेला बनी अभिशाप होकर, और जागा जग, सुला अस्तित्व अपना पाप होकर; छलक ही उट्ठे, विशाल ! न उर-सदन में तुम समाये। उठ उसाँसों ने, सजन, अभिमानिनी बन गीत गाये, फूल कब के सूख बीते, शूल थे मैंने बिछाये। शूल के अमरत्व पर बलि फूल कर मैंने चढ़ाये, तब न आये थे मनाये- कौन पथ भूले, कि आये?

वायु / माखनलाल चतुर्वेदी

चल पडी चुपचाप सन-सन-सन हवा, डालियों को यों चिढाने-सी लगी, आंख की कलियां, अरी, खोलो जरा, हिल स्वपतियों को जगाने-सी लगी, पत्तियों की चुटकियां झट दीं बजा, डालियां कुछ ढुलमुलाने-सी लगीं। किस परम आनंद-निधि के चरण पर, विश्व-सांसें गीत गाने-सी लगीं। जग उठा तरु-वृंद-जग, सुन घोषणा, पंछियों में चहचहाट मच गई, वायु का झोंका जहां आया वहां- विश्व में क्यों सनसनाहट मच गई?

गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीर / माखनलाल चतुर्वेदी

सूझ ! सलोनी, शारद-छौनी, यों न छका, धीरे-धीरे ! फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ, री, न थका, धीरे-धीरे ! कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले, पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे, मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़, री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़ ! ठहर अरसिके, आ चल हँस के, कसक मिटा, धीरे-धीरे ! झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से, कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता यह कौन जगत के पलक खोलता आता? तू भी यह ले, रवि के पहले, शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे। क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के? क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के? किसके भय से तोरण तस्र्-वृन्द लगाते? क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते? तू मत देरी से, रण-भेरी से शिखर गुँजा, धीरे-धीरे। फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में, पाषाणों पर पंखे झलती छाया में, बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के, झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की, टेर लगे, धीरे-धीरे। तस्र्-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार, गहरी सरिता है बन्द यहाँ का द्वार, बोले मयूर, ...

कुंज कुटीरे यमुना तीरे / माखनलाल चतुर्वेदी

पगली तेरा ठाट ! किया है रतनाम्बर परिधान अपने काबू नहीं, और यह सत्याचरण विधान ! उन्मादक मीठे सपने ये, ये न अधिक अब ठहरें, साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में कालिन्दी की लहरें। डोर खींच मत शोर मचा, मत बहक, लगा मत जोर, माँझी, थाह देखकर आ तू मानस तट की ओर । कौन गा उठा? अरे! करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर? इसी कैद के बन्दी हैं वे श्यामल-गौर-शरीर। पलकों की चिक पर हृत्तल के छूट रहे फव्वारे, नि:श्वासें पंखे झलती हैं उनसे मत गुंजारे; यही व्याधि मेरी समाधि है, यही राग है त्याग; क्रूर तान के तीखे शर, मत छेदे मेरे भाग। काले अंतस्तल से छूटी कालिन्दी की धार पुतली की नौका पर लायी मैं दिलदार उतार बादबान तानी पलकों ने, हा! यह क्या व्यापार ! कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में छूट पड़ी पतवार ! भूली जाती हूँ अपने को, प्यारे, मत कर शोर, भाग नहीं, गह लेने दे, अपने अम्बर का छोर। अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं, हुई बड़ी तकसीर, धोती हूँ; जो बना चुकी हूँ पुतली में तसवीर; डरती हूँ दिखलायी पड़ती तेरी उसमें बंसी कुंज कुटीरे, यमुना तीरे तू दिखता जदुबंसी। अपराधी हू...

कैदी और कोकिला / माखनलाल चतुर्वेदी

क्या गाती हो? क्यों रह-रह जाती हो? कोकिल बोलो तो! क्या लाती हो? सन्देशा किसका है? कोकिल बोलो तो! ऊँची काली दीवारों के घेरे में, डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में, जीने को देते नहीं पेट भर खाना, मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना! जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है, शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है? हिमकर निराश कर चला रात भी काली, इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ? क्यों हूक पड़ी? वेदना-बोझ वाली-सी; कोकिल बोलो तो! "क्या लुटा? मृदुल वैभव की रखवाली सी; कोकिल बोलो तो।" बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का दिन के दुख का रोना है निश्वासों का, अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का, बूटों का, या सन्त्री की आवाजों का, या गिनने वाले करते हाहाकार। सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-! मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली, बेसुरा! मधुर क्यों गाने आई आली? क्या हुई बावली? अर्द्ध रात्रि को चीखी, कोकिल बोलो तो! किस दावानल की ज्वालाएँ हैं दीखीं? कोकिल बोलो तो! निज मधुराई को कारागृह पर छाने, जी के घावों पर तरलामृत बरसाने, या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने दीवार चीरकर अपना स्वर ...

मैं अपने से डरती हूँ सखि / माखनलाल चतुर्वेदी

मैं अपने से डरती हूँ सखि ! पल पर पल चढ़ते जाते हैं, पद-आहट बिन, रो! चुपचाप बिना बुलाये आते हैं दिन, मास, वरस ये अपने-आप; लोग कहें चढ़ चली उमर में पर मैं नित्य उतरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! मैं बढ़ती हूँ? हाँ; हरि जानें यह मेरा अपराध नहीं है, उतर पड़ूँ यौवन के रथ से ऐसी मेरी साध नहीं है; लोग कहें आँखें भर आईं, मैं नयनों से झरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! किसके पंखों पर, भागी जाती हैं मेरी नन्हीं साँसें ? कौन छिपा जाता है मेरी साँसों में अनगिनी उसाँसें ? लोग कहें उन पर मरती है मैं लख उन्हें उभरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि  ! सूरज से बेदाग, चाँद से रहे अछूती, मंगल-वेला, खेला करे वही प्राणों में, जो उस दिन प्राणों पर खेला, लोग कहें उन आँखों डूबी, मैं उन आँखों तरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! जब से बने प्राण के बन्धन, छूट गए गठ-बन्धन रानी, लिखने के पहले बन बैठी, मैं ही उनकी प्रथम कहानी, लोग कहें आँखें बहती हैं; उनके चरण भिगोने आयें, जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनक...

दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें। लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।। गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।। उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे, सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।। वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल। तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्...

लड्डू ले लो / माखनलाल चतुर्वेदी

ले लो दो आने के चार लड्डू राज गिरे के यार यह हैं धरती जैसे गोल ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल इनके मीठे स्वादों में ही बन आता है इनका मोल दामों का मत करो विचार ले लो दो आने के चार। लोगे खूब मज़ा लायेंगे ना लोगे तो ललचायेंगे मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक हँसी खुशी से सब खायेंगे इनमें बाबू जी का प्यार ले लो दो आने के चार। कुछ देरी से आया हूँ मैं माल बना कर लाया हूँ मैं मौसी की नज़रें इन पर हैं फूफा पूछ रहे क्या दर है जल्द खरीदो लुटा बजार ले लो दो आने के चार।

एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो, धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो, 'त्रिवेणी' दो नदी हैं! एक तुम हो, हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा, प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो। रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में / भारतेंदु हरिश्चंद्र

गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम कुछ है बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी नशीली आँख दिखाकर करो सरशार होली में

मारग प्रेम को को समझै / भारतेंदु हरिश्चंद्र

मारग प्रेम को को समझै 'हरिचंद' यथारथ होत यथा है। लाभ कछू न पुकारन में बदनाम ही होने की सारी कथा है। जानत है जिय मेरो भला बिधि और उपाय सबै बिरथा है। बावरे हैं ब्रज के सगरे मोहिं नाहक पूछत कौन विधा है।

जगत में घर की फूट बुरी / भारतेंदु हरिश्चंद्र

जगत में घर की फूट बुरी। घर की फूटहिं सो बिनसाई, सुवरन लंकपुरी। फूटहिं सो सब कौरव नासे, भारत युद्ध भयो। जाको घाटो या भारत मैं, अबलौं नाहिं पुज्यो। फूटहिं सो नवनंद बिनासे, गयो मगध को राज। चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ, आपु नसे सहसाज। जो जग में धनमान और बल, अपुनो राखन होय। तो अपने घर में भूलेहु, फूट करो मति कोय॥

यमुना-वर्णन / भारतेंदु हरिश्चंद्र

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये। झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥ किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा। कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥ मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत। कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥ तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति । जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥ होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा । तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥ सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की । मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥ परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो । लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥ मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो । कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥ कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है । कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥ कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत । पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।। मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै । कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।। कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती । कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी ...

गंगा-वर्णन / भारतेंदु हरिश्चंद्र

नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति। बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥ लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत । जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥ सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत। दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥ श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस। ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥ शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल। एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥ सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन। अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

चूरन का लटका / भारतेंदु हरिश्चंद्र

चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।। मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।। चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।। मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।। हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।। चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।। चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।। चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।। चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।। चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।। चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।। चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।। चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।। चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।। चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

दशरथ विलाप / भारतेंदु हरिश्चंद्र

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे । किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।। बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था ।। छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत । दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।। छिपे हो कौन-से परदे में बेटा । निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।। बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते । तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।। किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा । अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।। गई संग में जनक की जो लली है इसी में मुझको और बेकली है ।। कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर । कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।। गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ । तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।। मेरी आँखों की पुतली कहाँ है । बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।। कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो । मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।। लगी है आग छाती में हमारे। बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।। मुझे सूना दिखाता है ज़माना । कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।। अँधेरा हो गया घर हाय मेरा । हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।। मेरा धन लूटकर के कौन भागा । भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।। हमारा बोलता तोता कहाँ है । अरे वह...

मातृभाषा प्रेम पर दोहे / भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन। उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय। निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय। इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग। और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात। तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय। विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार। भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात। सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।

बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी | भारतेंदु हरिश्चंद्र

बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी मौत भी मेरी एक तमाशा आलम को दिखलाएगी महव-ए-अदा हो जाऊँगा गर वस्ल में वो शरमाएगी बार-ए-ख़ुदाया दिल की हसरत कैसे फिर बर आएगी काहीदा ऐसा हूँ मैं भी ढूँडा करे न पाएगी मेरी ख़ातिर मौत भी मेरी बरसों सर टकराएगी इश्क़-ए-बुताँ में जब दिल उलझा दीन कहाँ इस्लाम कहाँ वाइज़ काली ज़ुल्फ़ की उल्फ़त सब को राम बनाएगी चंगा होगा जब न मरीज़-ए-काकुल-ए-शब-गूँ हज़रत से आप की उल्फ़त ईसा की अब अज़्मत आज मिटाएगी बहर-अयादत भी जो न आएँगे न हमारे बालीं पर बरसों मेरे दिल की हसरत सर पर ख़ाक उड़ाएगी देखूँगा मेहराब-ए-हरम याद आएगी अबरू-ए-सनम मेरे जाने से मस्जिद भी बुत-ख़ाना बन जाएगी ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर आख़िर इक दिन सूरत ये सब मिट्टी में मिल जाएगी आरिफ़ जो हैं उन के हैं बस रंज ओ राहत एक 'रसा' जैसे वो गुज़री है ये भी किसी तरह निभ जाएगी

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं | Mai thufano me chalne ka aadi hu - गोपाल दास नीरज

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं तुम मत मेरी मंजिल आसान करो अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं है नहीं स्वीकार दया अपनी भी तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं तुम मत मेरी मंजिल आसान करो शर्म के जल से राह सदा सिंचती है गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है मंजिल की मांग लहू से ही सजती है पग में गती आती है, छाले छिलने से तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं तुम मत मेरी मंजिल आसान करो फूलों से जग आसान नहीं होता है रुकने से पग गतीवान नहीं होता है अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी है नाश जहां निर्मम वहीं होता है मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे तुम मेरी हर ...

तू खुद की खोज में निकल | Tu khud ki khoj me nikal

तू खुद की खोज में निकल तू किस लिए हताश है, तू चल, तेरे वजूद की समय को भी तलाश है समय को भी तलाश है.. जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ समझ न इन को वस्त्र तू… जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ समझ न इन को वस्त्र तू… ये बेड़ियां पिघाल के बना ले इनको शस्त्र तू बना ले इनको शस्त्र तू तू खुद की खोज में निकल तू किस लिए हताश है, तू चल, तेरे वजूद की समय को भी तलाश है समय को भी तलाश है.. चरित्र जब पवित्र है तो क्यों है ये दशा तेरी… चरित्र जब पवित्र है तो क्यों है ये दशा तेरी… ये पापियों को हक़ नहीं की ले परीक्षा तेरी की ले परीक्षा तेरी तू खुद की खोज में निकल तू किस लिए हताश है तू चल, तेरे वजूद की समय को भी तलाश है.. जला के भस्म कर उसे जो क्रूरता का जाल है… जला के भस्म कर उसे जो क्रूरता का जाल है… तू आरती की लौ नहीं तू क्रोध की मशाल है तू क्रोध की मशाल है तू खुद की खोज में निकल तू किस लिए हताश है, तू चल, तेरे वजूद की समय को भी तलाश है समय को भी तलाश है.. चूनर उड़ा के ध्वज बना गगन भी कपकाएगा… चूनर उड़ा के ध्वज बना गगन भी कपकाएगा… अगर तेरी चूनर गिरी तो एक भूकंप आएगा तो एक भूकंप आएगा… तू खुद की खोज में निकल तू किस लि...

कोई अर्थ नहीं | Koi arth nahi

नित जीवन के संघर्षों से जब टूट चुका हो अन्तर्मन, तब सुख के मिले समन्दर का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। जब फसल सूख कर जल के बिन तिनका -तिनका बन गिर जाये, फिर होने वाली वर्षा का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन यदि दुःख में साथ न दें अपना, फिर सुख में उन सम्बन्धों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। छोटी-छोटी खुशियों के क्षण निकले जाते हैं रोज़ जहाँ, फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। मन कटुवाणी से आहत हो भीतर तक छलनी हो जाये, फिर बाद कहे प्रिय वचनों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सुख-साधन चाहे जितने हों पर काया रोगों का घर हो, फिर उन अगनित सुविधाओं का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। -- राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar

तुझे कैसे भूल जाऊँ | Tujhe Kaise Bhul Jaaun - दुष्यंत कुमार

अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में– लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚ ये सड़क है उजाड़‚ या मेरा ख़याल है‚ सामाने–सफ़र बाँधते–धरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग होकर निढाल‚ शाम बजाती है जलतरंग‚ इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में‚ सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। -- दुष्यंत कुमार

तुलना | Tulna- दुष्यंत कुमार

गडरिए कितने सुखी हैं । न वे ऊँचे दावे करते हैं न उनको ले कर एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं। जबकि जनता की सेवा करने के भूखे सारे दल भेडियों से टूटते हैं । ऐसी-ऐसी बातें और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं जैसे कुछ नहीं हुआ है और सब कुछ हो जाएगा । जबकि सारे दल पानी की तरह धन बहाते हैं, गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं ... भेडों को बाड़े में करने के लिए न सभाएँ आयोजित करते हैं न रैलियाँ, न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ, न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं, स्वेच्छा से जिधर चाहते हैं, उधर भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं । गडरिए कितने सुखी हैं ।

वसंत आ गया | Basant aa gaya - दुष्यंत कुमार

वसंत आ गया और मुझे पता नहीं चला नया-नया पिता का बुढ़ापा था बच्चों की भूख और माँ की खांसी से छत हिलती थी, यौवन हर क्षण सूझे पत्तों-सा झड़ता था हिम्मत कहाँ तक साथ देती रोज मैं सपनों के खरल में गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष फूला और फला मुझे पता नहीं चला... मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं मेरे दफ्तर में विगत और आगत के बीच एक युद्ध चल रहा था शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद मैं शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी मेरी आँखों में नगर जल रहा था मैंने बार-बार घड़ी को निहारा और आँखों को मला मुझे पता नहीं चला। मैंने बाज़ार से रसोई तक जरा सी चढ़ाई पार करने में आयु को खपा दिया रोज बीस कदम रखे- एक पग बढ़ा। मेरे आसपास शाम ढल आई। मेरी साँस फूलने लगी मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा लगा मुझे केवल आदर्शों ने मारा सिर्फ सत्यों ने छला मुझे पता नहीं चला | By - Dushyant Kumar | दुष्यंत कुमार

बादल को घिरते देखा | Baadal ko ghirte dekha - नागार्जुन

अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है, बादल को घिरते देखा है। तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें हैं, उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर पावस की ऊमस से आकुल तिक्त-मधुर बिषतंतु खोजते हंसों को तिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है। ऋतु वसंत का सुप्रभात था मंद-मंद था अनिल बह रहा बालारुण की मृदु किरणें थीं अगल-बग़ल स्वर्णाभ शिखर थे एक-दूसरे से विरहित हो अलग-अलग रहकर ही जिनको सारी रात बितानी होती, निशा-काल से चिर-अभिशापित बेबस उस चकवा-चकई का बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें उस महान सरवर के तीरे शैवालों की हरी दरी पर प्रणय-कलह छिड़ते देखा है। बादल को घिरते देखा है। दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर अलख नाभि से उठने वाले निज के ही उन्मादक परिमल— के पीछे धावित हो-होकर तरल-तरुण कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है, बादल को घिरते देखा है। कहाँ गए धनपति कुबेर वह कहाँ गई उसकी वह अलका नहीं ठिकाना कालिदास के व्योम-प्रवाही गंगाजल का, ढूँढ़ा बहुत किंतु लगा क्या मेघदूत का पता कही...